सामयिकीःहर्ष अपने बारे में कुछ बतायें। आपके परिवार में कौन कौन हैं?
हर्षः मैं भारतीय रेल में काम करता हूँ। आजकल मंत्रालय में कार्यकारी निदेशक (वित्त व्यय) के पद पर हूँ। मैं मूलतः हरियाणा का रहने वाला हूँ। मैंने उत्तर प्रदेश में स्कूली शिक्षा प्राप्त की तथा कॉलेज की पढ़ाई दिल्ली से की। मेरे परिवार में मेरी माँ, पत्नी, दो पुत्रियां (सुभाषिनी व शाश्वती) व मेरी सास हैं।
सामयिकीःसुशा फाँट की रचना की बात आपने क्यों सोची? वो क्या समस्या या प्रेरणा थी जिसने आपको सुशा श्रेणी के फाँट डिजाइन करने व उसे आमजन के लिए मुफ़्त जारी करने को प्रेरित किया?
हर्षः आपने देखा होगा कि लगभग सभी फाँट का प्रयोग करने के लिये उसी कम्पनी के सॉफ्टवेयर को लेना पड़ता है। मेरा प्रयास था कि यह दिक्कत हटाई जाये और यह सभी के लिये हमेशा मुफ़्त उपलब्ध रहे। वैसे जब हम अंग्रेज़ी के अलग-अलग फाँट इस्तेमाल करते हैं तो कोई अलग से पैसे नहीं देते, फिर हिन्दी के लिये क्यों? बस यही सोच थी! मेरी जरूरतें भी कम हैं – तनख्वाह व पेंशन का जुगाड़ सरकारी नौकर होने के नाते हो ही रहेगा। अत: यह सुविधा मुफ्त ही उपलब्ध करायी व इसकी निहित डिजाइन में इस बात का ख्याल रखा गया कि कोई इस पर अधिकार कर कोई इस पर न रोक लगा सके न बेच सके। हाँ, इसका प्रयोग कर यदि कोई अपना सॉफ्टवेयर बनाकर बेचे और अपनी मेहनत के एवज में पैसे कमाये तो इस पर कोई जागिरदारी नहीं है।
सामयिकीःसुशा की निर्माण प्रक्रिया के बारे में बतायें। इस फाँट के डिजाइन में क्या तकनीकी समस्याएं रहीं?
फाँट के डिजाइन की तकनीकी जानकारी माइक्रोसॉफ्ट की साईट पर सभी के लिये उपलब्ध है, बस शौक व जनून चाहिये।हर्षः फाँट के डिजाइन की तकनीकी जानकारी माइक्रोसॉफ्ट की साईट पर सभी के लिये उपलब्ध है, बस शौक व जनून चाहिये। सुशा यूनीकोड फाँट नहीं है। वास्तव में यह केवल फाँट नहीं है अपितु कम्पयूटर पर काम करने का तरीका है जिसमें आपको कोई अलग सॉफ्टवेयर नहीं लगाना पड़ता और आप आसानी से काम कर सकते हैं जैसे कि आप अंग्रेज़ी में काम करते हैं और उसका कीबोर्ड भी आसान है। मुझे बहुत खुशी है कि आज सभी भारतीय भाषाओं के सॉफ्टवेयर में सुशा कुंजीपट उपलब्ध है। उस समय यह सुविधा किसी में भी नहीं थी। यह इंटरनेट रेडी भी था। यही बातें इसकी मुख्य पहचान थीं व लोकप्रियता का कारण भी।
सामयिकीःसुशा के शुरुवाती प्रयोग व प्रयोक्ताओं के बारे में कुछ बतायें। क्या उनके प्रतिक्रिया से इसमें बदलाव किये गये?
हर्षः एक वास्तविक किस्सा बताता हूँ। मैने गुजराती श्री वकील से सीखी थी और यही कारण है कि सुशा परिवार के गुजराती फाँट का नाम वकील है। उनकी बेटी अपनी पढ़ाई के लिये अमरीका चली गयी। तो उनकी माँ और बेटी के बीच में पत्र व्यवहार व बातचीत बंद हो गयी। उन दिनों फोन कॉल इतने सस्ते नहीं थे और न उनका इतना प्रचलन था। बस पत्र या ईमेल लिखना ही एक मात्र मध्यम था। बेटी को गुजराती मे लिखना नहीं आता था और दादी को हिन्दी पढ़ना नहीं आता था। तो श्री वकील अपनी बेटी के हिन्दी या अंग्रेज़ी के पत्र को गुजराती में माँ को बता देते थे और माँ की बात बेटी को हिन्दी या अंग्रेज़ी में। जब सुशा का गुजराती में ‘वकील01’ आया तो बेटी हिन्दी में ईमेल भेज देती थी जिसे श्री वकील गुजराती में ‘वकील01’ फान्ट में डाल कर प्रिन्ट कर देते थे। यनी दादी पोती में सीधा संबन्ध फिर से बन गया।
शुरू में तो मेरी पत्नी व कुछ दोस्तों की प्रतिक्रिया से काम चलाया गया बाद में जब अन्य लोगों की प्रतिक्रिया भी मिली तो उसका भी ध्यान रखा गया। एक बात मैंने ध्यान में रखी कि जब एक key यानी कुंजी किसी अक्षर के लिये आवंटित कर दी गयी तो फिर उसकी जगह नहीं बदली गयी, ठीक वैसे ही जैसे कि यूनीकोड में ध्यान रखते हैं।
सामयिकीःक्या आपको उम्मीद थी कि यह फाँट हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय फाँटों में से एक बन जाएगा? खासकर जालस्थलों के लिए?
हर्षः क्योंकि यह मुफ्त में था और आसानी से उपलब्ध था, काम करना आसान था, कीबोर्ड को याद रखने में आसानी थी। शायद यही कारण था कि जालस्थलों में यह फाँट हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय फाँटों में से एक बन पाया। मैं इसके लिये जालस्थलों के चलाने वालों का आभारी रहुंगा – विशेषकर अभिव्यक्ति व काव्यालय वेब पत्रिकाओं का। यहाँ पर इसके प्रयोग से अधिक से अधिक लोगों को इसकी जानकारी मिली।
सामयिकीःसुना है कि दिल्ली के किसी तकनीकी मेले में पहली दफ़ा सुशा फाँट का प्रदर्शन किया गया तो लोग इसकी प्रति प्राप्त करने के लिए लोग फ्लॉपियाँ लेकर टूट पड़े थे। आपके ऐसे पहले पहले के अनुभवों को जानना चाहेंगे।
हर्षः जी यह सही है। दिल्ली में 1997 में प्रगति मैदान में चल रहे ‘आई टी एशिया’ मेले में MAIT तथा NASCOM के सौजन्य से एक स्टॉल मिल गया था जहाँ पर इसका मुफ्त में वितरण किया जा रहा था। लोग फ्लॉपी लेकर आते थे और इसकी कॉपी ले जाते थे। हमारे पास फ्लॉपी तो नहीं थीं, लोगों को एक फ्लॉपी भी बमुश्किल मिलती थी तब प्रश्न आया कि क्या करें। लोगों ने सुझाव दिया कि 220 रु में 10 फ्लॉपी का डिब्बा मिलता है तो 22 या 25 रु लेकर बाँटो। मैंने कहा कि मैं इसके पैसे को हाथ नहीं लगाऊंगा। तब कुछ लोगों ने पूरा डिब्बा खरीदा और अपनी 1 या 2 फ्लॉपी रख कर बाकी वहीं खड़े-खड़े बेच दी या लोगों को मुफ्त में बांट दी। भीड़ इतनी थी कि किसी किसी दिन तो खाना खाने की फुर्सत भी नहीं मिल पाती थी। उन दिनों इंटरनेट से डाउनलोड करने में कभी-कभी दिक्कत आती थी, अत: लोग मौका नहीं गंवाना चाहते थे।
बहुत खुशी होती थी तथा थकान भी – सारा दिन प्रेजेंटेशन करो, हर बार एक नया समूह। उन्हें फिर समझाओ और फ्लॉपी की प्रतिलिपी वितरित करो। पर बहुत खुशी थी कि लोगों को यह इतना पसन्द आया। बहुत खुशी होती थी जब कोई स्वयंसेवी मिल जाता था और कहता था, “आप थक गये होंगे। कहें तो मैं प्रेजेंटेशन करूँ और लोगों को समझाऊँ?”, या कोई कहता, “लाइये मैं फ्लॉपी की कापी कर देता हूँ” और अगले तीन-चार घन्टे तक काम करता रहता। प्रेस के लोग भी मेहरबान थे। मैं सबके नाम तो याद नहीं रख पाया पर अक्सर सोचता हूँ तो सूरतें आँखों के सामने आती हैं और मन ही मन मैं उनका शुक्रिया अदा करता हूँ।
सामयिकीःसरकारी नौकरी में आमतौर पर नियमबद्ध कार्य होते हैं। क्या आपको अब लगता है कि सुशा – का रूप रंग कुछ अलहदा होता यदि यह नियमबद्धता नहीं होती? सुशा के अलावा आपने अन्य कोई तकनीकी ईजाद किये हों तो उनके बारे में हमारे पाठकों को बतायें।
हर्षः सरकारी नौकरी के अपने नियम हैं और हम सब उनको मानते हैं और उनका पालन करते हैं। हाँ सरकारी नौकरी नहीं होती तो शायद इसे मुफ्त में बाँटना मुश्किल होता। सरकारी नौकरी में बंधन तो होता है पर साथ ही यह सुविधा भी होती है कि जनहित में काम करो तो कोई परेशानी नहीं होगी। किसी समस्या के या काम के नये नये तरीके या हल निकालना मुझे अच्छा लगता है। जब कोई हल या नया तरीका सटीक बैठता है तो बहुत अच्छा लगता है। लीनक्स पर हिन्दी लाने में मुझे विशेष खुशी मिली। हाँ पर्याप्त धन व साधन नहीं जुटा पाया कि पूरा लीनक्स ही हिन्दी में हो, इसका मलाल भी रहता है। शायद मैं अगर काम के पैसे लेता तो धन इकठ्ठा कर पाता या किसी वैंचर कैपिटल कंपनी से या साझे में यह कर पाता। एक बार मुझे ऐसा व्यक्ति मिला जिसने मेरी मुफ्त सलाह लेने से इन्कार किया और कहा – मैं आपकी सलाह पर काम कर के पैसे कमाऊँगा पर यदि आप उसमें से हिस्सा नहीं लेंगे तो मेरे लिये वह चोरी होगी जो मैं नहीं करना चाहता। अत: मैं आपसे सलाह नहीं ले सकता।
सामयिकीःआपकी राय में मंगल जैसे और यूनीकोड हिंदी फॉन्ट के विकास व व्यापन में क्या समस्याएं रही हैं? और इस दिशा में कोई उल्लेखनीय कार्य क्यों नहीं हुआ?
हर्षः टीटीएफ फॉन्टस बनाना और बात थी तथा यूनीकोड फॉन्ट बनाना अलग तरीके का काम है। यदि यूनीकोड या माइक्रोसॉफ्ट की साइट पर जायें और यूनीकोड फॉन्ट बनाने के तरीके देखें तो यह आसानी से समझ में आयेगी। और अब तो ‘कोडिंग’ का विश्व स्तरीय मानक है। हमें आशा हैं कि कुछ दिन में हिन्दी के बहुत सुन्दर यूनीकोड फॉन्ट आने लगेंगे।
सामयिकीःइंटरनेट पर हिन्दी के बढ़ाव को आप कैसे देखते हैं? इस प्रसार को बढ़ाने के लिये और क्या किया जाना चाहिये?
हिन्दी का प्रचार बढाने के लिये हम सबको एक परिवर्तन लाना पड़ेगा। वह यह है कि हम भी विदेशियों की तरह अपना अनुभव लिखना शुरू कर दें, अपने-अपने ब्लॉग पर या अन्य माध्यमों से अपनी बात दूसरों तक पहुँचाना शुरू कर दें। भारतवर्ष में अगर अपनी बात सभी तक ले जानी है तो हिन्दी ही माध्यम है, जैसा कि टीवी चैनल समझ चुके हैं।
सामयिकीःआप लिखते भी हैं। साहित्य और तकनीक की जुगलबंदी कुछ अनोखी लगती है। तकनीक ने साहित्य को प्रेरित किया अथवा साहित्य ने तकनीक को?
हर्षः दोनों का अपना – अपना स्थान है। मुझे तो दोनों से प्यार है।
सामयिकीःआपको किस तरह का लेखन पसंद है? अपने लेखन व प्रकाशित रचनाओं के बारे में कुछ बतायें।
हर्षः मैं कविता लिखता हूँ । एक छोटी कोशिश कहानी या लेख की भी की है। मेरे दो कविता संग्रह छप चुके हैं और दो की तैयारी है। मैं इन्हें एक ब्लॉग में भी डाल रहा हूँ।
सामयिकीःटीवी के दौर में आज कवि व साहित्यकार स्वयम् को कहाँ खड़ा पाते हैं?
हर्षः टीवी तो 2 मिनट नूडल्स की तरह है या यह कहिये कि फास्ट फूड की तरह है। हम उसका स्वाद तो चखते हैं और साथ में पूरा खाना भी खाते हैं। विजुअल मीडिया का अपना स्थान है प्रिंट मिडिया का अपना। दोनों साथ में हैं, एक दूसरे के पूरक हैं।
सामयिकीःअपनी कोई पसंदीदा कविता सुनाना चाहेंगे?
हर्षः यह सबसे मुश्किल सवाल है। मुझे तो सभी अच्छी लगती हैं। हाँ एक कविता एक बहुत अहम विषय पर है – बालिका भ्रूण हत्या पर। आपको भेज रहा हूँ।
बालिका भ्रूणहत्या
देखो तुम ये छोटी बच्ची, है कितनी अच्छी
प्यारी-प्यारी बातें इसकी, हैं कितनी अच्छी।
प्यार करूं कितना भी, कम ही कम लगता है
लाड़ लड़ाऊं जितना, पर मन नहीं भरता है ।मैं सोचता रहता हूं काम इसे कितने हैं
आने वाला कल इस पर ही निर्भर है ।
नई-नई पीढ़ी को दुनिया में ये ही लाएगी
हम इसको जो देंगे दस गुना उन्हें यह देगी ।सब सीख उन्हें ये देगी, पालेगी-पोसेगी
तकलीफ अगर होगी, तो रात-रात जागेगी ।
इसके दम से ही, हम दम भरते हैं दुनिया में
इसके दम से ही, तुम दम भरते हो दुनिया में ।पर दुर्भाग्य हमारा देखो, अकल के कुछ अंधे हैं
दुनिया में आने से पहले ही, जो मार इसे देते हैं ।
वो भी क्या कम हैं, जो तंग इसे करते हैं
दहेज की वेदी पर, जो बलि इसकी देते हैं ।अगर नहीं यह होगी, तो कल भोर नहीं होगी
यह संसार नहीं होगा, यह सृष्टि नहीं होगी ।
हम भी नहीं होंगे, तुम भी नहीं होगे
विश्वास मुझे है तब वो भी नहीं होगा ।जिसके दम से हम दम लेते हैं दुनिया में ।
जिसके दम से तुम दम लेते हो दुनिया में
तब वो भी नहीं होगा
तब वो भी नहीं होगा।
[साक्षात्कार के सवाल जुटाने में मदद के लिये सामयिकी संजय करीर, अतुल जैन, शशि, तरुण व रविशंकर की शुक्रगुज़ार है।]
साक्षात्कार पढ़कर अच्छा लगा. कविता बहुत उम्दा है. आपका आभार.
हर्षकुमारजी से हुई बातचीत पढ़कर बहुत अच्छा लगा। हर्षजी की कवितायें भी अच्छी, संवेदनशील हैं। सामयिकी शानदार है।
हर्ष जी की बात और उनका कार्य दोनो ही बहुत प्रेरणास्पद लगे। उनका साक्षात्कार छापने के लिये आपको बहुत-बहुत साधुवाद!
मेरी भी हिंदी में क्मप्यूटर पर पढ़ने लिखने की शुरुआत सुशा फोंट के माध्यम से हुई थी, पर हर्ष कुमार जी के बारे में कुछ नहीं जानता था, इसलिए यह साक्षात्कार पढ़ कर बहुत खुशी हुई. धन्यवाद.
हिन्दी भाषा की सेवा करने पर हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकार करें। बहुत बहुत धन्यवाद