मैं चौबीसों घंटे लेखक ही होता हूँ – अल्ताफ़ टायरवाला

तुरिन की गोष्टी का चित्र। बायें से शशि थरुर, अल्ताफ़ टायरवाला, प्रो सैन पिएत्रो, लाव्णया शंकरम तथा निरपाल सिंह धौलीवाल।
तुरिन की गोष्टी का चित्र। बायें से शशि थरुर, अल्ताफ़ टायरवाला, प्रो सैन पिएत्रो, लाव्णया शंकरम तथा निरपाल सिंह धौलीवाल।
नवरी 2008 की बात है। हम इटली के उत्तर स्थित शहर तुरिन में इतालवी साहित्यिक संस्था द्वारा आयोजित एक गोष्टी में शामिल होने गये थे। अँग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखक अल्ताफ़ टायरवाला से मैंने इंटरव्यू का आग्रह किया था और अंततः दोपहर के भोजन के लिये जाते समय एक बस में यह बातचीत संभव हो सकी। बातचीत में लावण्या शंकरम भी शामिल थीं पर उन्हें पता ना था कि मैं बातचीत रिकार्ड कर रहा हूँ। मैं बड़ा खुश था क्योंकि चर्चा बड़ी अच्छी हुई थी। बाद में पता चला कि रिकार्डिंग उतनी अच्छी नहीं हो पाई थी, लावण्या की आवाज़ ठीक से दर्ज नहीं हो पाई और मुझे भी पूरी तरह उनकी बातें याद नहीं थी कि मैं इस लेख में उन्हें शामिल कर पाता, इसका मुझे खेद रहेगा।

जब मैं रिकार्डिंग की तैयारी कर रहा था तो अल्ताफ़ ने कहा कि उन्हें अच्छा नहीं लगा कि आयोजकों ने उनका परिचय “भारत से एक मुस्लिम लेखक” कह कर दिया है। “और तो किसी लेखक के धर्म के बारे में नहीं कहा गया, तो मेरे ही बारे में उन्होंने इस तरह क्यों कहा?” मैं उनसे सहमत था, कोई यह कह कर मेरा परिचय दे कि “इनसे मिलिये, ये भारत से एक हिंदू लेखक हैं” तो मुझे भी बहुत बुरा लगता। हालाँकि मेरी आयोजकों से चर्चा हुई थी और मुझे पता था कि वे बस यह जतलाना चाहते थे कि समारोह में भारतीय अल्पसंख्यकों को दरकिनार नहीं किया गया।

खैर, इसके बाद रिकार्डिंग शुरु हुई और नीचे उसी का विवरण हैः

सुनीलः अल्ताफ़, तुम्हें किस तरह के लेखक और लेखन पसंद हैं?

अल्ताफ़ः मुझे वह लेखन अच्छा लगता है जिसमें बेकार की सब बातों को काट कर निकाल दिया गया हो और लेखन में बिल्कुल गिनेचुने आवश्यक शब्द हों। मुझसे लम्बे विवरण सहन नहीं होते। ऐसा लेखन जो यह मानकर चले कि मुझे फलां बात मालूम ही नहीं होगी… भई मैं इंटरनेट पर पढ़ता हूँ, कोशिश करता हूँ कि पता रहे दुनिया में क्या हो रहा है। तो मैं वही पढ़ना चाहता हूँ जो मुझे किसी अन्य जगह से नहीं मिल सकती।

सुनीलः क्या तुमने अगोटा क्रिस्टोफ की कोई किताब पढ़ी है, मसलन उनकी “सिटि आफ के” की त्रयी? जब मैंने तुम्हारी किताब “नो गॉड इन साईट” पढ़ी थी तो पहले अध्याय के बाद ही मुझे अगोटा की याद आयी। वह हँगरी से हैं और स्विटज़रलैंड में रहती हैं। अब वह बूढ़ी हो गयीं हैं। उनकी किताबें भी छोटी होती हैं जिनमें तुम्हारी किताब की तरह के ही छोटे छोटे अध्याय होते हैं। इनी गिनी पंक्तियाँ, नपे-तुले शब्द। पर इसके बावजूद उनके लेखन का भावनात्मक असर ज़ोरदार होता है।

अल्ताफ़ः नहीं, मैंने उन्हें नहीं पढ़ा। पर जिस तरह की जालिय दुनिया में हम रह रहे हैं, मेरा आधे से भी अधिक पढ़ना तो इंटरनेट पर होता है, तो संक्षिप्तता अत्यंत महत्वपूर्ण है। अपनी रोजमर्रा की दुनिया में, कोई किताब या पत्रिका पढ़ूं तो भी चाहता हूँ कि बात संक्षेप में और जितनी आवश्यक हो बस वहाँ तक की जाये। मुझे मालूम है कि तफ़सीलवार लिखने में भी फायदा है, बात में गहराई आ जाती है, तो मैं उसे स्वीकार कर सकता हूँ।

सुनीलः तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारी बात में कुछ विरोधाभास है, कि तुम लिखना चाहते हो पर साथ ही “कम से कम शब्दों में” लिखना चाहते हो?

Altaf Quoteअल्ताफ़ः (हँस पड़ते हैं) हाँ, बिल्कुल! इससे मेरी आजीविका को बहुत नुकसान पहुँचता है। मैं हर साल नयी किताब नहीं निकाल सकता। लेखक के तौर पर यह एक मुश्किल है जिससे मुझे जूझना है। मेरे अंदर ये दो परस्पर विरोधी आवेग हैं, एक लिखने का और दूसरा अपनी बात को न्यूनतम शब्दों में कहने का आवेग। कभी लगता है कि चुप रहना बेहतर है क्योंकि सब कुछ लिखा कहा जा चुका है और दूसरी ओर चुप रहने की इच्छा के बावजूद लिखने की कोशिश है।

सुनीलः लेखन एक सृजनात्मक विधा है पर कला की अन्य भी बहुत सी सृजनात्मक विधाएँ हैं। क्या तुम्हें अन्य सृजनात्मक विधाओं में भी रुचि थी और तुमने लेखन को चुना? या तुम्हें केवल लेखन में ही दिलचस्पी थी?

अल्ताफ़ः मैंने कई बार सोचा है कि चित्रकार होना या संगीतकार होना कैसा होगा, पर लेखन सृजनात्मक अभिव्यक्ति से भी कहीं आगे जाता है। यह मेरे जीवन का हिस्सा बन गया है। यह सृजनात्मक शक्ति के विस्फोट जैसा नहीं है बल्कि यह मेरी जीवनशैली को ढाल देता है। मैं जब लिख रहा होता हूँ केवल तभी लेखक नहीं होता, मैं चौबीस घँटे लेखक ही होता हूँ। कम से कम मुझे तो यही लगता है। हर समय मन में यह बात रहती है कि मैं लेखक हूँ, आसपास की सच्चाई को समझना है तो बस कुछ भी हो यही वार्तालाप सा मन में चलता रहता है कि समझूँ, सोचूं। लेखक होने में सबसे पहले पागलपन जैसे ऊर्जा आती है कि बनाऊँ, निर्माण करूँ, पर धीरे धीरे यह ऊर्जा अपना रास्ता बनाने लगती है, केंद्रित होने लगती है, तब सोचने विचारने का काम प्रारम्भ होता है और लेखन परिपक्व बनता है।

जब शुरु शुरु में लिखने लगा तो पाया कि मेरी कहानियाँ मेरे अपने बारे में ही होती थीं, मेरे अपने सांसारिक अनुभवों के बारे में। पर बहुत कहानियाँ लिखने के बाद समझ में आया कि इस पूरे संसार का मैं तो एक छोटा सा हिस्सा भर हूँ। तब यही मेरा काम है कि विभिन्न परिस्थितियों को अपने भीतर जियूँ, खुद से पूछूँ कि यूँ हो तो या वैसा हो तो कैसा लगेगा, खुद को विभिन्न परिस्थितियों में रख कर समझ सकूँ, यह महसूस कर सकूँ कि कोई और होना सचमुच कैसा होता है। केवल सतही या बनावटी नहीं, सचमुच भीतर से अपने अंदर दूसरा कोई होना महसूस करना।

सुनीलः तुम्हारी एक किताब छपी है पर तुम्हारे मन में तुमने अन्य बहुत सी किताबें भी लिखी होंगी या वे जो अभी केवल तुम्हारे दिमाग में हैं। तुम यह निर्णय कैसे लेते हो कि किस कहानी को लिखोगे और इस तरह सोचने से करने में कितना समय लगता है?

“मुंबई और बॉम्बे” के निवासी अल्ताफ़

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32 वर्षीय अल्ताफ़ टायरवाला अंग्रेज़ी उपन्यासकार हैं, “मुंबई और बॉम्बे” के निवासी हैं। उनका पहला नॉवल 2005 में प्रकाशित हुआ। “नो गॉड इन साईट” की कहानी समकालीन मुंबई में निम्न और मध्यम वर्गीय मुसलमानों के जीवन के इर्द गिर्द घूमती है। अमरीका में उन्होंने बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशन व लेखन की शिक्षा ली पर न्यूयॉर्क उन्हें अपने बचपन के भायखला से ज़्यादा दूर नहीं रख पाया। पर लेखन में ई-लर्निंग सॉफ्टवेयर बनाने के अनुभव ने मदद ज़रूर दी है। इसके अलावा अल्ताफ़ की जिंदगी के बारे में अंतर्जाल पर और कुछ खोजे नहीं मिलता, उनके बारे में अंग्रेज़ी विकीपीडिया पर पृष्ठ तक नहीं है। हो सकता है वे खुद संक्षिप्त ही बने रहना चाहते हैं, अपनी किताब पर छपे अपने तीन लाईना परिचय की तरह।

अल्ताफ़ः (हंसते हैं) मेरा पहला उपन्यास तो पूरा बना बनाया ही निकल आया। मेरे अंदर लिखने का आवेग था, गहरी इच्छा थी और लिखना मेरी अंदरूनी ज़रूरत थी। मैं सोच रहा था कि किस तरह आम तौर पर लिखे जाने वाले उपन्यास उस समाज और उस सच्चाई को दिखा पायेंगे जिसमें मैं बड़ा हुआ और जिसमें मैं रहता हूँ। तब मुझे लगा कि उपन्यास का जो आम ढाँचा होता है वह मेरे कथानक से न्याय नहीं कर पायेगा और उसे लिखने के लिए मुझे एक नया तरीका चाहिये, एक ऐसा ढाँचा जिसका पहले किसी ने पहले कभी प्रयोग न किया हो। इस बात का मन में डर भी था कि इस तरीके का लिखा जिसे मैंने पहले नहीं देखा, मालूम नहीं था कि कैसा होगा।

आपका प्रश्न क्या था? कि कितना समय लगता है? यह कहना कठिन है। महीने भी लग सकते हैं। जैसे कि मेरे दूसरे उपन्यास को शुरु होने में दो साल भी अधिक लगे हैं। पहले उपन्यास में मुझसे तुरंत रास्ता मिल गया था, एक बार रास्ता मिल जाये तो सब आसान है, तब हर दो हफ्तों में एक अध्याय पूरा कर लेता था और उससे बहुत संतोष मिलता था। पर मैं सोचता हूँ कि यह सोचने का समय जब उपन्यास मन में तैयार हो रहा है, वह भी बहुत महत्वपूर्ण है। प्रतीक्षा करनी चाहिये जब तक यह पक्का विश्वास न हो कि हाँ यह बात ठीक है और इसे लिखना चाहता हूँ, बजाय कि जल्दबाजी की जाये किसी झूठे काम के लिए। तो मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ, जब सही बात आयेगी तब अंगुलियों को स्वयं मालूम चल जायेगा है कि इसी बात की तलाश कर रहा था।

सुनीलः क्या तुम अपनी पत्नी से लेखक के रूप में मिले या उसे लेखक बनने से पहले से जानते थे?

अल्ताफ़ः जब हम मिले थे उस दौरान मैं अमरीका में एक बेचारा कॉलेज विद्यार्थी था। हम दोनों साथ पढ़ते थे। वह कहती है कि मैंने उसे अपना ठीक से परिचय नहीं दिया (हंसते हैं) और यह तो वह बाद में समझीं कि मैं लेखक था। क्योंकि वह मुझे लेखक बनने से पहले से जानती है, उसकी वजह से मेरे पाँव धरती पर जमे रहते हैं। इन लेखकों की दुनिया में ऊपर उड़ने लगने का बहुत खतरा है, वह मुझे याद दिलाती है कि मैं यह भूल न जाउँ…

सुनीलः “मुझे लेखक बनना है”, आज की दुनिया में युवाओं के लिए इसका बात का क्या अर्थ है? शायद आज भी एक युवती के लिए यह बात भिन्न हो पर जब एक नवयुवक घर में कहता है कि वह लेखक बनना चाहता है तो समाज की प्रतिक्रिया कैसी होती है? यहाँ इटली में लोग एक दूसरे की ज़िंदगी में इतना दखल नहीं देते। पर भारत में आज लेखक बनने के सपने को किस तरह से देखा जाता है?

अल्ताफ़ः मेरे विचार से मुझमे इतनी समझ थी कि अगर मुझे लेखक ही बनना है तो मुझे यह जल्दी ही करना होगा, मैं अधिक इंतज़ार नहीं कर सकता। बस मैंने नौकरी छोड़ दी और पूरे समय के लिए लेखक बन गया। उस समय मेरे माता पिता की ओर से थोड़ा सा सहारा मिला कि अगर विफल भी हो गया तो 25-26 साल की उम्र तक वापस नौकरी कर लेगा। इस तरह मुझे यह प्रयोग करने का मौका मिल गया। अगर इस किताब को सफलता न मिली होती तो मैं वापस नौकरी पर ही होता, 9 से 5 वाली नौकरी। और हाँ, लिखने के लिए मैंने बैंक से कर्ज लिया था।

सुनीलः अरे (ठहाका लगाते हैं), कैसे? और बैंक वालों की क्या प्रतिक्रिया रही?

अल्ताफ़ः उनको यह नहीं बताया कि मैं लेखक बनने के लिए कर्ज माँग रहा हूँ, कहा कि मैं इंटरनेट पर ई-बिज़नेस शुरु करना चाहता हूँ जिसके लिए पैसा चाहिये। उस पैसे से मैंने तीन चार साल तक काम चलाया, मेरे छोटे मोटे खर्चों के लिए। मुझे मालूम था कि यह कुछ समय की बात है। अगर अपने मन में आप जानते हैं कि आप को क्या चाहिये तो बस उसी आकांक्षा को पूरा करना चाहिये।

सुनीलः सही कहा अल्ताफ़। इस बातचीत के लिए बहुत धन्यवाद।

6 thoughts on “मैं चौबीसों घंटे लेखक ही होता हूँ – अल्ताफ़ टायरवाला

  1. अल्‍ताफ का साक्षात्‍कार पढ़ कर अच्‍छा लगा. सामयिकी और सुनील जी को धन्‍यवाद.

  2. “अगर अपने मन में आप जानते हैं कि आप को क्या चाहिये तो बस उसी आकांक्षा को पूरा करना चाहिये।” यह पंक्ति तो सचमुच बुद्धिमान बात कहती है. इंटरव्‍यू लेने का उत्‍साह, उसकी प्रस्‍तुति- दोनों का शुक्रिया.

  3. अल्ताफ़ जी के बारे में पढ़कर अच्छा लगा। मिलवाने के लिए धन्यवाद।
    घुघूती बासूती

  4. प्रस्तुति बहुत अच्छी रही
    और सामयिकी के प्रति हमारी आकांक्षाये और भी बढ़ गई हैं

  5. “अगर अपने मन में आप जानते हैं कि आप को क्या चाहिये तो बस उसी आकांक्षा को पूरा करना चाहिये।”
    सही कहा अपने सर

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