स फ़रवरी में मैं मुंबई में थी। मेरे परिवार के काफ़ी सदस्य मुंबई में रहते है इसलिए आना जाना लगा रहता है। इस बार मुझे कुछ काम से दादर जाना था। शुक्रवार की शाम थी। टैक्सी लेने की सोची तो गूगल ने बताया कि ट्रैफिक के चलते लगभग डेढ़ घंटे का समय लगेगा। मैंने सोचा कि ये अच्छा मौका है बरसों के बाद मुंबई की लोकल ट्रेन में सफ़र करने का।

वैसे मैंने कई बार मुंबई लोकल में सफ़र तो किया है, लेकिन रश आवर की भीड़ से निपटने की ट्रेनिंग मुझे कभी नहीं मिली। तिस पर मुझे भीड़ से उलट दिशा में जाना था। खैर अब तो एसी लोकल भी आ गयी है, इसलिए लगा कि जाकर ज़रूर देखना चाहिए।

मुंबई में ऑटो रिक्शा आसानी से मिल जाती है और ये बात मुझे अच्छी लगती है कि ये मीटर से ही चलती है। कोई फ़ालतू की चिकचिक नहीं। बंगलुरु में मैंने देखा कि ऑटो सामने ही खड़ा हो तो भी कोई नहीं लेता, सब ऍप से ही ऑटो बुलाते है क्योंकि ऑटो वाले बेसिरपैर दाम माँगते हैं। मुंबई इस मामले में काफ़ी ठीक ठाक लगा। हाथ दिखाओ तो ऑटो मिल जाती है। पर हाँ, सारे मुंबईकर की तरह ऑटो वाले भी जल्दी में होते हैं। एक बार तो मैंने अपना सामान रखा ही था कि ड्राइवर ने ऑटो चला दी। मैंने कहा, “भाई, मुझे भी साथ लेकर जाना है।” मैं गिरते गिरते बच गयी। “गांव से आई हो क्या?” उसने भी मुझे एक ताना मार ही दिया। ख़ैर, जैसे तैसे ऑटो रिक्शा से मैं पहुंची बोरीवली स्टेशन।

लाइन एक बड़ी लोकतान्त्रिक चीज़ है। चाहे कितनी भी लम्बी हो, आपको पता होता है कि अपना नंबर आएगा। जहाँ लाइन पर भरोसा नहीं, वहाँ की सिस्टम पर भरोसा कैसे किया जाय।

टिकट लेने पहुँची तो देखा लाइन काफ़ी छोटी थी। “वाह! सही है।” मैं लाइन में खड़ी हुई ही थी कि सरकारी स्टाइल में बाबू ने बोर्ड लगा दिया “खिड़की बंद”। ये देखते ही मैं और मेरे आगे शांति से खड़े चार लोग अचानक जाग उठे। अब अगली खिड़की पर खड़े हों, या वेंडिंग मशीन से टिकट निकालें? पांच सेकंड के लिए सब बौखला गए, और फिर सब एक दूसरे से होड़ करते वेंडिंग मशीन की ओर भागे।

अब मैंने वेंडिंग मशीन तो कई देखे है पर यहाँ वेंडिंग मशीन के साथ एक वेंडर आंटी भी थी जो खटाखट लोगों को टिकट निकाल कर दे रही थीं। ये मुझे अचरज की बात लगी। आई शप्पथ! मैं तो फ़ोटो निकलने वाली थी, पर उस समय मुझे टिकट लेने की ज़्यादा जल्दी थी। मेरे अंदर का सोया मुंबईकर जाग चुका था। मैं आंटी जी की टिकट निकालने की कुशलता को सराहते हुए लाइन में खड़ी हो गयी। उनकी जगह, अगर मेरे जैसा कोई बेख़बर एक के बाद एक टिकट निकालें तो जन्मों लग जाते। परंतु आंटी फटाफट मशीन चला रही थीं। मशीन एक ही था, पर आंटी किसी रोबोट की तरह चार मशीनों जितनी क्षमता से उसे चला रही थीं। गज़ब का जुगाड़ था।

वैसे यहां सब कैश में चल रहा था। आंटी कैलकुलेटर का रोल भी निभा रही थीं। पता नहीं कि वो सरकारी कर्मचारी थीं, या नहीं। खिड़की वाले बाबू और उनके काम करने के अंदाज़ में ज़मीन आसमान का फ़र्क था। क्या आंटी को इस काम का कमीशन मिलता है? क्या पता। मैं तो ये सब कौतूहलता से देख ही रही थी कि मेरी ही उम्र के एक भाई साहब लाइन कट करते हुए सीधे आंटी के पास पहुँचे।

“एक दादर एसी”। किसी को लाइन तोड़ता देखते ही मेरे अंदर का एक्टिविस्ट बाहर आ जाता है। “हल्लो, भाई यहाँ सब लाइन में खड़े हैं ” मैंने उसे याद दिलाया। “मेरा एसी टिकट है।” वो तपाक से बोला। “तो मेरा भी एसी ही है।” मैंने जवाब दिया। एसी ट्रेन है तो क्या लाइन तोड़ दोगे? मैंने मन ही मन सोचा। “एसी वालों को लाइन में खड़ा नहीं रहना होता। आप भी ले लो।” मुझे सुझाव देकर वो सरपट गायब हो गया। “अच्छा? ऐसा क्यों?”, मुझे पूछने का मन हुआ, पर मौका हाथ से निकल गया। वैसे ये मैं कभी अमिताभ के उस किरदार से भी नहीं पूछ पाई थी, जिन्होंने कभी कहा था कि हम जहाँ खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरु होती है।

लाइन एक बड़ी लोकतान्त्रिक चीज़ है। चाहे कितनी भी लम्बी हो, आपको पता होता है कि अपना नंबर आएगा। जहाँ लाइन न हो वहाँ मुझे बेचैनी होती है, क्योंकि कैसे और किसका नंबर आएगा वो पता नहीं रहता। जहाँ लाइन पर भरोसा नहीं, वहाँ की सिस्टम पर भरोसा कैसे किया जाय। मुझे ये एसी वाले लोगों के लिए अलग नियम वाला प्वाइंट थोड़ा खटका। एसी वाले पहले, बाकी सब बाद में, ये क्या बात हुई। हाँ, कोई ये कहता कि एसी के लिए अलग खिड़की रखें, तो ये संसाधनों का बेहतर उपयोग होता।

सामान्य वर्ग के भाड़े पर एक नज़र डालते ही समझ आ जायेगा कि इन दामों पर एसी ट्रेन नहीं चलाई जा सकती। आदर्शवाद से ज़्यादा बात व्यावहारिकता की है।

वैसे जिस शहर में खचाखच भीड़ में लोग सफर करते हो वहाँ सिर्फ कुछ लोगों की सुविधा के लिए एसी ट्रेन का होना भी खटकता है। पहली बार जब मैंने एसी लोकल के बारे में सुना था तो मेरे मन में भी यही ख़याल आया था। “सभी लोकल ट्रेनें एयर कंडिशन्ड क्यों नहीं हो सकती?” पर सामान्य वर्ग के भाड़े पर एक नज़र डालते ही समझ आ जायेगा कि इन दामों पर एसी ट्रेन नहीं चलाई जा सकती।

आदर्शवाद से ज़्यादा बात व्यावहारिकता की है। मुंबई में ऑटो का न्यूनतम भाड़ा 23 रुपये है, जबकि बोरीवली से दादर के 20-22 km के सफ़र के लिए द्वितीय श्रेणी का टिकट 10 रुपये का है। मंथली पास तो और भी सस्ता है।

इसे देखने का दूसरा नज़रिया ये है कि एसी ट्रेन के आने से लोगों के पास सुरक्षित और सुविधाजनक पब्लिक ट्रांसपोर्ट का विकल्प बढ़ा है। इसी बहाने सड़क से कुछ गाड़ियाँ तो कम हो जाति हैं। बोरीवली से दादर के लिए 70 रुपये हुए। टैक्सी के मुकाबले ये बहुत ज़्यादा किफ़ायती है। बोरीवली से दादर का मंथली पास 1335 रुपए का है। “नॉट बैड,” मैंने सोचा। इन्हीं ख़यालों के साथ टिकट लेकर मैं प्लेटफार्म पर पहुंची।

(क्रमशः)