हिन्दी फ़िल्मों में बस पैसों के लिये काम किया

एक अभिनेत्री के रूप में मुझे लड़कपन से ही अपर्णा सेन बहुत अच्छी लगती थीं और विगत दिसम्बर में, फ्लोरेंस के “रिवर टू रिवर फिल्म फेस्टिवल” में मुझे इस प्रसिद्ध अभिनेत्री तथा निर्देशक से रूबरू होने का मौका मिला। समारोह में उनकी दो फ़िल्मों को सम्मान मिल रहा था। उनकी नयी बांग्ला फ़िल्म “इति मृणालिनी” से फ़िल्म फेस्टिवल का उद्घाटन हुआ और उनकी 2010 की सुन्दर कविता जैसी बिना कहे ही बहुत कुछ कहने वाली अंग्रेज़ी फ़िल्म “द जेवेनीज़ वाईफ़” से फेस्टिवल का समापन हुआ। दोनों फ़िल्मों को दर्शकों और आलोचकों से बहुत प्रशंसा मिली, हालाँकि अपर्णा जी के लिए प्रशंसा कोई नयी बात नहीं, करीब तीस साल पहले बनी उनकी निर्देशित पहली फ़िल्म, “36 चौरंगी लेन” को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और फ़िल्म में जेनिफ़र कैंडल के मर्मस्पर्शी अभिनय को आज तक भूलाना कठिन है। प्रस्तुत है फ़िल्म फेस्टिवल के आयोजन स्थल, फ़्लोरेंस के सौ साल से भी अधिक पुराने ओडियन सिनेमा हाल, के नज़दीक स्थित एक कैफे में की गयी बातचीत के अंश।

सुनीलः मुझे विश्वास नहीं होता कि मैं आप के सामने बैठा बात कर रहा हूँ। आप को पहली बार मेरे विचार में अंग्रेज़ी फ़िल्म “द गुरु” में 1970 में देखा था।

अपर्णाः “द गुरु” 1970 की नहीं थी, बहुत बाद की थी … नहीं, शायद आप ठीक कह रहे हैं, 1970 के आसपास की ही थी।

सुनीलः हाँ, मेरे विचार में 1970 की ही बात है। मुझे याद है कि दिल्ली के रिवोली सिनेमा हाल में देखने गया था। खैर यह तो पुरानी बात है। आज मैं आप से कुछ ऐसे प्रश्न करना चाहूँगा जिनके बारे में कम लिखा गया हो या जिन्हें कम लोग जानते हों। तो बात शुरु करना चाहूँगा आप के बचपन से। आप के पिता जाने माने फ़िल्म आलोचक थे, ऐसे वातावरण में बड़े होने का आप पर क्या प्रभाव पड़ा?

अपर्णाः फ़िल्म आलोचक होने के अतिरिक्त, मेरे माता पिता कलकत्ता फ़िल्म सोसाईटी को बनाने वाले सदस्यों में शुमार थे। इसका असर यह हुआ कि बचपन से ही मुझे दुनिया भर से बढ़िया सिनेमा देखने का मौका मिला। मेरी फ़िल्मों की दिलचस्पी और पसंद तभी बनी। रूसी फ़िल्में जैसे कि “बेटलशिप पोटेमकिन”, “ईवान द टेरिबल”, या फ्राँससी फ़िल्म “पैशन आफ़ जोन द आर्क” मैंने तभी देखीं। इस तरह की फ़िल्में देखते हुए मैं बड़ी हुई।

सुनीलः अच्छा, मैंने कहीं पढ़ा था कि आप ने दस वर्ष की आयु में पहली बार फ़िल्म में अभिनय किया?

अपर्णाः यह गलत है, मैंने दस साल की उम्र में किसी फ़िल्म में काम नहीं किया।

सुनीलः यानि 1961 की सत्यजित राय की फ़िल्म “तीन कन्या” ही आप की पहली फ़िल्म थी? तब क्या आप को समझ थी कि आप इतने महान फिल्मकार के साथ काम कर रही हैं?

अपर्णाः बिल्कुल पूरी समझ तो नहीं थी, मुझे मालूम था कि वह बड़े निर्देशक हैं, लेकिन मेरी दृष्टि में वह फ़िल्म निर्देशक से अधिक मेरे पिता के पुराने मित्र थे। मुझे वह कहानी, रवींद्रनाथ टैगौर की “स्माप्ति” बहुत अच्छी लगी थी, मैंने उस कहानी को उन्हीं दिनो पढ़ा था, तो कहानी की मृणमयी का किरदार निभाना मुझे बहुत अच्छा लगा। उस फ़िल्म में काम करने के दिन बहुत मज़ेदार थे, लगता था कि पिकनिक हो रही हो। न स्कूल जाना पड़ता या इम्तिहान की चिंता करनी पड़ती। बहुत आनन्द आया।

सुनीलः जब वह फ़िल्म आयी तो आप सोलह साल की थीं, फ़िल्म की शूटिंग के बाद वापस स्कूल जाना कैसा लगा? क्या आप उस समय प्रसिद्ध हो चुकीं थीं?

अपर्णाः फ़िल्म के बाद स्कूल जाना बहुत बुरा लगा। इतने मजे के दिनों के बाद स्कूल की पढ़ाई करना कठिन था, फ़िर साथ पढ़ने वाली साथियों ने भी मेरा मज़ाक उड़ाया, ताने कसे, टिप्पणियाँ की। मेरी कुछ परीक्षायें छूट भी गईं, बस दो तीन विषय के इम्तिहान ही दे पायी। मैं उस समय अंग्रेजी, इतिहास जैसे विषयों में बहुत तेज़ थी और यह इम्तिहान भी अच्छे हुए। मेरे विचार में मैं इन विषयों में अव्वल आयी, लेकिन अन्य विषयों में इम्तिहान नहीं दिये थे तो कक्षा में बाकी साथियों से काफ़ी पीछे थी। तब हमारे स्कूल में सब विद्यार्थियों की सभा में सबके परिणाम पढ़े जाते थे, जब मेरी बारी आयी तो हमारी प्रिंसिपल ने कुछ ताना कसा कि “हमें पढ़ाई से अधिक अभिनय में दिलचस्पी है”। मुझे बहुत बुरा लगा, रो भी पड़ी।

सुनीलः आप ने अपने बचपन का कुछ हिस्सा हज़ारीबाग में बिताया, उसके बारे में कुछ बताईये।

अपर्णाः मेरे दादा जी वहाँ रहते थे। वह ब्रह्मसमाजी थे, उनकी वहाँ चैरिटेबल डिस्पैंसरी थी जो मुझे बहुत दिलचस्प लगती थी। उनका घर बहुत सुन्दर था, सीधा सादा पर बहुत सुन्दर। हम लोग छुट्टियों में वहाँ जाते थे। हमारी सभी छुट्टियाँ हज़ारीबाग में ही निकलती थीं, विशेषकर सर्दियों की छुट्टियाँ। उस समय की यादें बहुत मुझे प्रिय हैं।

सुनीलः आप ने अनेक फ़िल्मों में काम किया है। क्या कोई भूमिकायें ऐसी भी थीं, जो आप को अच्छे नहीं लगी या जिन्हें आप अपने आप से बिल्कुल भिन्न महसूस करती थीं?

अपर्णाः जब अभिनय का क्षेत्र चुना हो काम के लिए तो कई बार ऐसी फ़िल्मों में भी काम करना पड़ता है जो कि आप को पसंद न हों, पर पैसा कमाना है तो करना ही पड़ेगा। मैंने बांग्ला में एक फ़िल्म की “अभिचार”, जो मैं नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैंने उनसे बहुत पैसा माँगा, लेकिन वह मान गये और वह फ़िल्म मुझे करनी पड़ी। लेकिन उसे करते हुए मुझे वह बिल्कुल पसंद नहीं थी, बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। उसके निर्देशक थे बिस्वजीत चौधरी।

सुनीलः आप का अर्थ है अभिनेता बिस्वजीत, आज के अभिनेता प्रसेनजीत के पिता?

अपर्णाः हाँ, वही थे निर्देशक उस फ़िल्म के।

सुनीलः आप की माँ के परिवार में एक बहुत प्रसिद्ध कवि हैं…

अपर्णाः हाँ, जीवानन्दा दास।

सुनीलः क्या आप ने भी कभी कविता लिखी?

अपर्णाः नहीं। यानि जैसे छोटी उम्र में सभी कुछ कविता लिखते हैं, वैसे ही मैंने भी लिखीं, लेकिन उनमें कुछ महत्वपूर्ण नहीं था। जबकि जीवानन्दा दास जी, टेगौर के बाद के बांग्ला के बड़े कवियों में गिने जाते हैं, वह मेरी माँ के दूर के कज़न भाई थे। वह मेरे माता पिता के बहुत करीब भी थे।

सुनीलः क्या आप की माँ भी लिखती थीं?

अपर्णाः हाँ मेरी माँ सुप्रिया दासगुप्ता कहानियाँ लिखती थीं।

सुनीलः क्या आप को लगता है कि आप को हिन्दी सिनेमा में अधिक सफ़लता नहीं मिली?

अपर्णाः (मुस्कराते हुए) मैंने हिन्दी सिनेमा में बहुत कोशिश भी नहीं की, शायद क्योंकि मेरा मन बंगाल में था। जितनी भी हिन्दी फ़िल्में मैंने की, सब गलत कारणों से। कभी टेक्स की किश्त भरनी होती थी या नयी गाड़ी खरीदनी थी, बस इस तरह के कारणों से मैंने हिन्दी फ़िल्में चुनी। ठीक वजह से कोई हिन्दी फ़िल्म नहीं की मैंने।

सुनीलः इस बातचीत के धन्यवाद अपर्णा जी।

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