जनवरी 2008 में मुझे अँग्रेज़ी में लिखने वाली भारतीय लेखिका सुश्री अनीता नायर से मिलने का और बात करने का मौका मिला था। केरल में जन्मीं अनीता ने 1997 में अपनी पहली पुस्तक तब लिखी जब वे बंगलौर की एक विज्ञापन एजेंसी में कार्यरत थीं। अब तक उनके ग्यारह उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत है अनीता से हई बातचीत से कुछ अंश।

सुनीलः अनीता आपकी हिन्दी इतनी अच्छी है पर आप लिखती अंग्रेज़ी में है?

Anita Nairअनीताः मैं चेन्नई के पास अवडि नाम की छोटी सी जगह पर बड़ी हुई। अवडि कुछ अविश्वस्नीय सी जगह है। यहाँ भारतीय फौज के टैंक बनाये जाते हैं, देश के विभिन्न भागों के लोग वहाँ मिलजुल कर रहते हैं, जिसमें कोई एक गुट अन्य गुटों पर भारी नहीं पड़ता। मैंने आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई हिंदी माध्यम के विद्यालय में की है और हिंदी पर मेरा अच्छा अधिकार है। मैंने हिंदी साहित्य बहुत पढ़ा है, प्रेमचंद से ले कर मोहन राकेश तक, सभी जाने माने हिंदी लेखकों को पढ़ा है। शायद इसीलिए मेरे लेखन पर पश्चिमी नहीं भारतीय साहित्य का प्रभाव है।

मैं बड़ी तो हुई चेन्नई में पर मेरे अधिकतर साथी थे उत्तर भारतीय, इसलिए कुछ अजीब सी जगह थी। शेष भारतीय भाषाओं के मुकाबले अँग्रेजी में पढ़ना कम ही होता था। कुछ भाषाओं से मैंने अनुवाद भी पढ़े पर सबसे अधिक हिंदी में ही पढ़ा। इस तरह चेन्नई के उस समय में मेरा पढ़ना लिखना कुछ अजीब सा था। मेरी माँ मुझे मलयालम और तमिल भाषा में पढ़ कर सुनाती थीं, विद्यालय में मैं अधिकतर हिंदी में पढ़ती थी।

फ़िर अचानक ही किताबों के माध्यम से अँग्रेजी से मेरी मुलाकात हुई और मुझे इस भाषा से प्यार हो गया। इसीलिए मैंने अँग्रेजी में लिखने को चुना। लोग मुझसे अक्सर पूछते रहते हैं कि मैं अँग्रेजी में क्यों लिखती हूँ, जबकि मैं आम हिंदी भाषीयों से अच्छी हिंदी बोल लेती हूँ? यह सच है कि मैं अन्य बहुत से हिंदी लिखने बोलने वालों से अच्छी हिंदी लिख बोल लेती हूँ, पर मैं अच्छी मलयालम भी बोलती हूँ और अच्छी तमिल और कन्नड़ भी।

मैंने प्रेमचंद से लेकर मोहन राकेश तक, सभी जानेमाने हिंदी लेखकों को पढ़ा है। शायद इसीलिए मेरे लेखन पर पश्चिमी नहीं भारतीय साहित्य का प्रभाव है।

तो यह बात नहीं कि मैं भारतीय भाषाएँ नहीं जानती पर मैंने स्वयं ही अँग्रेजी में लिखने को चुना। शायद अरबी या फ्रेंच या किसी अन्य भाषा से इस तरह प्यार हो जाता तो उस भाषा में लिखती। मुझे अँग्रेजी अच्छी लगती है इसलिए मैंने अँग्रेजी को चुना। इससे क्या फर्क पड़ता है? भाषा तो भाषा ही होती है, उस पर इतिहास का बोझ क्यों डालें?

सुनीलः मैं आप से सहमत हूँ, कई बार भाषा की बहस में बहुत अजीब अजीब से तर्क दिये जाते हैं कि कौन किस भाषा में लिखे।

अनीताः मुझे इस तरह की बहस से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब मेरी किताब “लेडीस कूपे” का हिंदी में अनुवाद किया गया तो अनुवाद मुझे भेजा गया ताकि मैं जाँच लूं कि अनुवाद ठीक है या नहीं। मुझे पूरा उपन्यास नहीं पढ़ना पड़ा, पहले दो तीन अध्याय पढ़ कर ही मुझे महसूस हो गया कि हाँ अनुवादक ने ठीक काम किया है। मैं स्वयं अपने हिंदी अनुवाद को जाँच सकती हूँ, इतना ही मेरी लिए काफ़ी है। बाकी बहस से मुझे कुछ सरोकार नहीं। मेरे विचार में तो यह मेरा ही फायदा है कि मैं अँग्रेजी में लिख सकती हूँ।

सुनीलः अच्छा यहाँ विदेश में इस बात पर विमर्श किया जाता है कि प्रवासी होने का एक लेखक के लिए क्या अर्थ है। हम लोग भारत से बाहर रहने वाले प्रवासी लेखकों के बारे में बहस करते हैं। पर भारत में रह कर भी, अपनी भाषा और संस्कृति से दूर रह कर प्रवासी अनुभव होते हैं। आप का परिवार भी तो भारत में प्रवासी था। आप का परिवार केरल से है पर आप केरल के बाहर पली बड़ी हैं। आप इस बारे में क्या सोचती हैं?

अनीताः अब मेरे माता पिता केरल में ही रहते हैं।

सुनीलः लेकिन जब आप बड़ी हो रहीं थीं तब वे लोग केरल में नहीं थे।

अनीताः एक बात तो यह है कि चेन्नई में केरल के लोगों के बारे में बहुत बुरी तरह से बात की जाती है, उनके बारे में जाने क्या क्या कहते हैं। जब तक अवडि में रहे तो आसपास उत्तर भारतीय, महाराष्ट्र के, आँध्र के लोग थे। वहाँ रहने पर यह नहीं सोचते थे कि हम किस राज्य से हैं, सोचते थे कि हम भारतीय हैं। विवाह के बाद अवडि से बाहर निकलने पर पाया कि बाहर का संसार अवडि के संसार से भिन्न था, जहाँ पर हम अजनबी या “बाहर वाले” थे क्यों कि हमें ठीक से बोलना नहीं आता था या हमारी खाने पीने की आदतें भिन्न थीं। मेरे लिए सौभाग्य की बात हुई कि उन्हीं दिनों मेरे माता पिता ने वापस केरल जाने की सोची। तब से अक्सर मन ही मन मैं स्वयं से कहती हूँ कि “यह सब जगह थोड़े से दिनों के लिए ही हैं, बाद में हम लोग केरल वापस चले जायेंगे।”

चाहूँ तो वेनिस में घर ले कर रह सकती हूँ, पर जितनी बार यूरोप आती हूँ मुझे बताना पड़ता है कि मैं यहाँ क्यों आ रही हूँ। भारत से कदम बाहर रखने पर इस तरह के सवाल हमेशा उठते हैं।

फ़िर हम लोग कर्नाटक में आ गये। हमने बंगलौर में अपना घर बनवाया है पर मन में कहीं गहराई में यह बात छुपी है यह मेरा घर बँगलौर में है पर मैं अपनी जड़े यहाँ नहीं जमा सकती। इसलिए मैंने केरल में अपने लिए एक कॉटेज भी बनवाया, यह सोचकर कि चलो वहाँ पर अपना कुछ तो रहे। मैं सोचती हूँ कि यह मेरी अंदरूनी ज़रूरत है कि मैं वहाँ रहूँ जहाँ अपनापन मिले और यही वजह है कि मैं भारत में रहती हूँ, कहीं और नहीं।

आज मेरे लिए अपने रहने की जगह चुनना आसान है पर अपनापन खोजना, जड़ें खोजना, यह मेरी गहरी चाह है। चाहूँ तो वेनिस में घर ले कर रह सकती हूँ पर जितनी बार यूरोप आती हूँ मुझे बताना पड़ता है कि मैं यहाँ क्यों आ रही हूँ, कितने दिन रुकूगीं, आदि। मुझे इस तरह के सवाल अच्छे नहीं लगते। जब मैं भारत में यात्रा करती हूँ तो कोई मुझसे यह सवाल नहीं करता कि कितने दिन रुकोगी, क्यों आयी हो, वगैरह। पर भारत से कदम बाहर रखो तो इस तरह के प्रश्न हमेशा उठते हैं।

कई बार लोग सोचते हैं कि मैं स्पैनिश हूँ या दक्षिण इटली से क्लाबरिया जैसी जगह से हूँ, मुझसे स्पेनिश या इतालवी भाषा में बात करने लगते हैं। हो सकता है मैं स्पैनिश या इतालवी दिखती हूँ, कारण कुछ भी हो भीतर से मुझे लगता है कि मैं यहाँ की नहीं, यह मेरी जगह नहीं। भारत में चाहे लोग मुझे देख कर यह न बता पायें कि मैं कौन से राज्य से हूँ, पर कोई इस तरह के सवाल तो नहीं पूछता मुझसे।

सुनीलः आप के पति कहाँ से हैं?

अनीताः वह भी केरल के ही हैं।

सुनीलः तो क्या आप के बच्चों को लगता है कि उनकी जड़ें केरल में हैं?

अनीताः (हँस कर) मेरा बेटा तो कुछ कुछ इतालवी भाषा भी बोलता है, फ्राँचेस्का की वजह से, जो मेरी किताबों का इतालवी में अनुवाद करती है।

सुनीलः अच्छा अपने लिखने के बारे में बताईये। यह निर्णय कैसे लेती हैं कि आप किस विषय पर लिखेंगी?

अनीताः यह निर्णय करना कि अगली किताब कौन सी होगी, इसमें मुझे दो साल तक लग जाते हैं। लिखने का विचार मेरे अंदर लम्बे समय तक घूमता रहता है। अगर दो साल बाद भी मुझे लगे कि हाँ उस विचार में दम है तो मैं उस पर लिखूँगी। सोचने से लिखने तक दो तीन साल लग जाते हैं, और उसके बाद में उस विचार पर ठीक तरह से काम शुरु करती हूँ।

सुनीलः अच्छा आप किताब को सोच विचार कर बनाती हैं या फ़िर एक बार शुरु हो तो उसे अपने आप भावनाओं के बल पर बढ़ने देती हैं?

अनीताः दोनों ही तरह से। शुरु शुरु में तो बहुत सोच विचार कर पूरी योजना बनाती हूँ, पर कई बार कहानी और पात्रों की भावनाएँ सब कुछ अपने काबू में कर लेती हैं। और जब ऐसा हो तो मैं उसे रोकने या बदलने की कोशिश नहीं करती।

सुनीलः अनीता इस बातचीत के लिए धन्यवाद।