बालिका वधु: नाटक द्वारा सच का सामना

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मीण राजस्थान की पृष्ठभूमि में निर्मित धारावाहिक “बालिका वधु”, बालवधु आनंदी की कहानी बयां करती है। आठ साल की कच्ची उम्र में अपनी हमउम्र जगदीश से विवाहोपरांत आनंदी एक ऐसी नई दुनिया में प्रवेश करती है जो भ्रामक और दुत्कार भरी है। बचपन और परिवार के बेफ्रिकी भरे आनंद से वंचित आनंदी को एक अजनबी परिवार और नए रिश्तों के मुताबिक खुद को ढालना है और दोस्त, प्रेमिका, पत्नी और माँ के रूप में अपनी भूमिका को स्वीकारना है।

यह कार्यक्रम स्फ़ीयर ओरिजिन द्वारा निर्मित है और कलर्स चैनल पर सोमवार से शुक्रवार रात आठ बजे प्रसारित किया जाता है।

पर बालिका वधु ने मेरा ध्यान इस सीरियल द्वारा प्रयुक्त एक युक्ति के कारण आकर्षित किया। धारावाहिक के प्रत्येक एपिसोड के अंत में, यह एपिसोड में प्रस्तुत द्वन्द के बारे में कोई सवाल या बयान पेश करता है। सवाल या बयान सुनाया जाता है और पाठ रूप में स्क्रीन के नीचे भी दिखाई देता है। संघर्ष को दर्शाने के लिये पाठ के उपयोग ने मुझे आकर्षित किया क्योंकि इसने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि आखिर यह किस किस्म का संघर्ष है जिसे एक प्रासंगिक धारावाहिक के सामान्य मनोरंजन प्रारूप के माध्यम से पहुंचाया नहीं जा सकता।

दरअसल टेलीविजन के हर प्रसंग की कहानी का संपूर्ण उद्देश्य दर्शकों की बुद्धि की बजाए भावनाओं को छेड़ना है। दर्शकों को महसूस करना है, सोचना नहीं है। यह धारावाहिक एक भावुक वातायनी है जो कमोबेश एक द्विपदीय प्रारूप में संचालित होती है, जहाँ सिक्के के दो लोकसिद्ध पक्ष हैं – एक अच्छा, दूसरा खराब। सरलीकरण ही कुंजी है। हर एपिसोड के अंत में प्रस्तुत पाठ से यह एक मुद्दे पर कई दृष्टिकोण पेश कर पाता है। सवाल यह है कि क्या यह बस इस धारावाहिक को ‘बौद्धिक’ दर्शाने की युक्ति है?

मैं इस धारावाहिक को दो मीडिया संबंधित घटनाओं के संदर्भ में देखता हूँ। पहला यह है कि लगभग सभी मीडिया सामग्री पर मनोरंजन मंच का भारी प्रभुत्व है, यहाँ तक कि समाचार और समसामयिक कार्यक्रम भी रियेलिटी शो की तरह लगने लगे हैं। दूसरी ओर, धारावाहिक और ओछे होते जा रहे हैं। ऐसे में यह एक धारावाहिक है जो नाटक और साहित्यिक पाठ द्वारा भारत की सामाजिक वास्तविकताओं को ज़ाहिर कर रहा है।

दूसरी खास बात यह है कि गंभीर और आधुनिक संदेश देने के लिये पारंपरिक नाट्य का प्रयोग ऐसे दर्शकवर्ग हेतु किया जा रहा है जो मुख्यतः विशुद्ध मनोरंजन के लिए टीवी देखते हैं। मराठी भाषा के दो कार्यक्रम यहाँ अपनी जगह बनाते हैं। एक है टिकल ते पॉलिटिकल और दूसरा दार उधाड़ा न गडे। दोनों पारंपरिक वाग और तमाशा प्रारूपों का गंभीर सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों का प्रस्तुतिकरण करने के लिये का प्रयोग करते हैं। बालिका वधु पारंपरिक नाटक प्रारूप का बहुत प्रभावी ढंग से उपयोग करता है, पर ज्यादा दिलचस्प बात है पाठ यानि टेक्स्ट का प्रयोग।

गंभीर और आधुनिक संघर्षों से जुड़े मनोरंजन कार्यक्रमों के लोक मीडिया स्वरूप में टेक्सट के प्रयोग को दर्शकों की मिली स्वीकृति से संकेत मिलता है कि दर्शक बौद्धिक सामाजिक संघर्षों के साथ नाता जोड़ना चाहते हैं, अलबत्ता सरोकार का यह मंच मनोरंजन का होना चाहिये। यह कोई नई बात नहीं है। हमें हमारे मूल्य, नैतिकता और आचार दार्शनिकों और विचारकों के मुकाबले कथावाचकों से ज़्यादा मिले हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय वास्तविकताओं के साथ सामंजस्य बिठाने के लिये मास मीडिया अब कार्यक्रम के प्रारूप में परिवर्तन ला रहे हैं।

इस लेख को लिखे जाते समय, परिवार के एक किशोर ने (धारावाहिक में) एक कंप्यूटर गेम खरीदने के लिये पैसे चुराये हैं। वह एक अन्य किशोर के प्रभाव में है जिसे उसके आवारापन के कारण शहर से गांव वापस भेजा गया है। बयान: ‘अक्सर ऐसा होता है कि एक किशोर यह तय नहीं कर पाता कि क्या सही है और क्या गलत’।

दर्शक बौद्धिक सामाजिक संघर्षों की बात सुनना चाहते हैं, अलबत्ता सरोकार का यह मंच मनोरंजन का ही हो तो बेहतर। रात 8 बजे, जब पति काम से वापस आ गये हों और रोटियाँ बेलनी बाकी हों, तो टीवी पर कोई भी नैतिकता पर प्रवचन नहीं सुनना चाहेगा।

आप कहेंगे कि यह कोई कहने की बात है भला। हालांकि, महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बयान से आगामी संघर्ष के कारणों का भान हो जाता है। इस तरह का बयान देने के बाद धारावाहिक के मनोरंजन मूल्यों और उसकी शिक्षाप्रद क्षमता के बीच संतुलन बनाये रखना एक चुनौती भरा काम है। एक गलत कदम कहानी को उपदेशात्मक बना सकता है और दर्शकों को खो सकता है। नैतिक अंत सुबह सुबह देखना सुखद रहता है, जब बच्चे स्कूल चले गए हों, किशोर अब तक सो रहे हों, और पति चाय की चुस्कियों के बीच अखबार बाँच रहे हों। लेकिन रात 8 बजे, जब पति काम से वापस आ गये हों, गैस पर प्रेशर कुकर चढ़ाया हो, और रोटियाँ बेलनी बाकी हों, तो कोई भी नैतिकता पर प्रवचन नहीं सुनना चाहेगा। तो क्या यह धारावाहिक केवल महिलाएं देख रही हैं? हो सकता है कि दर्शकवर्ग में अधिकांश महिलायें शामिल हों।

मैंने कई किशोरियों को इस धारावाहिक की चर्चा करते सुना है। किशोरियों, और किशोरों की भी, उनके माता पिता काफी फिक्र करते हैं और उनकी हरकतों को बेहद संदेह की नजर से देखते हैं। मैं जानबूझ कर ‘मुंबई जैसे शहर में’ या ‘आज भी’ जैसे जुमलों का प्रयोग नहीं कर रहा क्योंकि मैं इस परिकल्पना का हिमायती हूं कि लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और संघवाद जैसी परिकल्पनायें भारतीय परिवार की दहलीज के बाहर ही होती हैं। परिवार में शिक्षा या कमाई का स्तर चाहे कुछ भी हो दहलीज़ के अंदर का जीवन ग्रामीण, सामंती, पितृसत्तात्मक, जातिवाद से भरा और सांप्रदायिक ही होता है। इससे यह समझा जा सकता है कि इस धारावाहिक को देखने वालों में किशोरियाँ क्यों शामिल हैं क्योंकि जब यह धारावाहिक प्रसारित होता है तब वे घर पर होती हैं, और उनकी मातायें भी यह सीरियल देखती हैं।

गौरतलब है कि सीरियल के दो मुख्य किरदार उन श्रेणियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसका दर्शकवर्ग सबसे बड़ा है। एक है बालवधु आनंदी और दूसरी विधवा कुलमाता दादीसा। आनंदी ने शादी के बाद यौवन में प्रवेश किया। उसकी शादी के लिये उसके पिता को परिवार की भूमि गिरवी रखनी पड़ी थी। शिक्षा पाने के लिये उसका संघर्ष अब तक जारी है। आनंदी का पति जगदीश लगभग उसी का हमउम्र किशोर है।

आनंदी का पति अभी तक एक ‘पुरुष’ नहीं है – यह एक ऐसा अंतर है जिसे कॉलेज जाने वाली लगभग हर किशोरी स्वाभाविक रुप से समझती है लेकिन स्पष्ट रूप से कह नहीं पाती। इस तरह का रिश्ता सेक्स और उसमें अंतर्निहित विकर्षण को तस्वीर से बाहर तो रखता है ही, इससे कथानक में लैंगिक संघर्ष को मुखर करने की खासी गुंजाईश रहती है। इस तरह जहाँ हमें यौनिक और लैंगिक संघर्ष के भावनात्मक और बौद्धिक पहलू अन्य लोगों के जीवन में दिखते रहते हैं, वहीं इस मासूम दंपती के बहाने भावनात्मक और बौद्धिक खुलाव भी मिल जाता है। दर्शक इस जोड़े की तरह मासूम बन जाता है; इससे अलग और अक्सर विरोधाभासी दुनिया में बड़े हो रहे पुरुष और महिलाओं की जटिल वास्तविकता से सामना करना आसान हो जाता है।

दादीसा पुराने ख्यालों की अनपढ़ औरत हैं। वह घर में सब पर पूर्ण नियंत्रण रखती है पर फिर भी हम देख सकते हैं कि परिवार के भीतर की राजनीतिक शक्ति के मामले में उसकी सत्ता को पुरुषों से चुनौती मिलती रहती है भले वो उसके प्रौढ़ बेटे क्यों न हो। इस संघर्ष को एक बुजुर्ग और उसके पुत्रों की बजाय एक कुल-माता और उसके बेटों के संदर्भ में देखना लेखक और दर्शक दोनों के लिये आसान होता है क्योंकि यहाँ हिंसा शारीरिक स्तर पर नहीं वरन ‘शब्दों’ और ‘भावनाओं’ के माध्यम से व्यक्त होती है। सीरियल में शारीरिक हिंसा अन्य परिवारों में होती दिखाई जाती है जिससे कथा का केंद्रीय परिवार अधिक नैतिक और प्रगतिशील लगे।

दादीसा पारम्परिक भारतीय परिवार की माँ, सास और कुलमाता का प्रतिरूप है जो हमेशा अज्ञात, अपरिभाषित लोगों या समाज के दबाव में रहती है और सोचती रहती है कि वे क्या कहेंगे, उसके परिवार और उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे या कोई घटना किस प्रकार परिवार में उसकी स्थिति और उसके परिवार की समाज में स्थिति को प्रभावित करेगी।

यह धारावाहिक अब तक बाल विवाह, लैंगिक पक्षपात, नैतिकता, कामुकता, विधवा पुनर्विवाह, जाति, वर्ग, ग्रामीण और शहरी संघर्ष, बाल अपराध, साहूकारी, भारतीय परिवारों में नैतिकता की पदावनति, विवाह की संस्था, और शिक्षा जैसे मुद्दों को संबोधित कर चुका है। जैसा कि हमने पहले चर्चा की, धारावाहिक के निर्माताओं ने हर नाटकीय विधा का प्रयोग कर यह सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि जिम्मेवारी का अनावश्यक बोझ लादे बिना दर्शकों तक ये मुद्दे सीधे पहुंचाये जा सके। टेक्सट यानि पाठ द्वारा दर्शकों को इस मुद्दे से भावनात्मक रूप से अलग कर उन्हें इस पर बौद्धिक तौर पर विचार करने को प्रेरित किया जाता है।

तो आखिरकार इस धारावाहिक पर कुछ नेताओं को आपत्ति क्यों है? आपत्ति का कारण शायद धारावाहिक में हुआ बाल विवाह है। धारावाहिक में दिखाया गया था कि कैसे एक जटिल सामाजिक और पारिवारिक प्रक्रिया के माध्यम से यह शादी तय की गई थी, कैसे विभिन्न समूहों ने एक दूसरे के फायदा उठाया और खुद भी दूसरों के शिकार बने। क्या इस धारावाहिक पर बाल विवाह को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जा सकता है? निश्चित रूप से, नहीं। बाल विवाह के खिलाफ कानून लागू करने का हमारा रिकॉर्ड वैसे भी संदिग्ध है। दरअसल, किसी भी मुद्दे पर है धारावाहिक की राय, विशेष रूप से प्रकरण के अंत में दिखाये जाने वाले साहित्यिक पाठ में, एक समाचार पत्र की सुर्खियों की तरह है। यह पाठ संघर्ष को सही संदर्भ में प्रस्तुत करता।

एक युवा विधवा गर्भवती महिला की एक युवक से शादी से संबंधित एपीसोड में भावनात्मक और नाटकीय संवाद और कड़ी के अंत में प्रस्तुत गंभीर बौद्धिक साहित्यिक पाठ के बीच संतुलन बनाये रखना बेहद मुश्किल था। इस मामले में लड़की के परिवार में घटना के प्रति नकारात्मक प्रतिक्रियाओं से लड़के के परिवार में हिंसात्मक और नाटकीय दृश्य रूपी प्रतिक्रिया मिली। पूरी संभावना थी कि यहाँ धारावाहिक खून के बदले खून जैसा माहौल चित्रित कर देता जिसमें लड़के के परिवार वाले लड़की के परिवार पर धोखाधड़ी और उनके एकलौते बेटे को हथिया लेने का आरोप लगाते और बदले की यह दास्तां दोनों परिवारों के बीच चलती रहती।लेकिन धारावाहिक इस हिंसा और घृणा को दोनों परिवारों की एक गर्भवती विधवा औरत और एक युवक की उससे शादी की इच्छा की वास्तविकता को स्वीकारने में असमर्थता के संदर्भ में प्रस्तुत करने में सफल रहा। धारावाहिक ने यहाँ एक बेहद दिलचस्प युक्ति का उपयोग किया – लड़का अपने परिवार को यह नहीं बताता कि महिला गर्भवती है, बस यह कहता है वह उसे प्यार करता है। अंतर्निहित पाठ में कहा जाता है: ‘अक्सर एक झूठ को छिपाने के लिए बार बार झूठ बोलना पड़ता है’।

बालिका वधु अब तक मुद्दों को एक सूत्र में जोड़ता रहा है जिसमें शुरुवात द्वंद्व को स्पष्ट करने से होती है, किरदारों की प्रतिक्रियाओं के माध्यम से इसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा, फिर साहित्यिक पाठ द्वारा उभरते सवाल और बहस के मुद्दों पर बौद्धिक चर्चा, और अंत में, समाधान।

जाहिर है, बालिका वधु भारतीय वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करता है। जो कहते हैं कि भारत में समस्याएं नहीं है मुगालते में हैं। यह कहना वैसा ही होगा कि हमारे देश में औरतों के साथ अत्याचार नहीं होता जब कि हमें अब भी दहेज विरोधी और महिला से अत्याचार के खिलाफ अधिनियमों की ज़रूरत पड़ती है।

इंफ़ोचेंज इंडिया से साभार, पूर्वानुमति से प्रकाशित। मूल अंग्रेजी लेख से हिन्दी अनुवादः देबाशीष।

One thought on “बालिका वधु: नाटक द्वारा सच का सामना”

  1. दरअसल आपत्ति उन लोगों को है जो इस कार्यक्रम को देखते भी नहीं है। अगर देखते होते तो ये आपत्ति न करते। लेकिन, एक अच्छी नीयत से बनाए गए इस धारावाहिक से भी कइयों को आपत्ति है उनका कहना है कि कई बार मुद्दे ऐसे होते है सही होते हुए भी वो परिवार के साथ उन्हें नहीं देख सकते हैं। ये है हमारे समाज और परिवार की असलियत…

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