इया नहीं चाहिये मगर बहिनजी का स्वागत है। महाराष्ट्र में कुछ इसी तर्ज़ पर शिवसेना अपनी राजनीति की बिसात बिछाती दिख रही है। विश्लेषकों की मानें तो कांग्रेस और एनसीपी ने राज ठाकरे को आगे कर जो बाउंसर शिवसेना की तरफ फेंका था उसके जवाब में शिवसेना मायावती से दोस्ती गांठकर गुगली डाल सकती है।

महाराष्ट्र की राजनीति की तनिक भी समझ रखने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि दलित राजनीति के लिए महाराष्ट्र की धरती देश के किसी अन्य राज्य के मुकाबले कम उर्वर नहीं है। दलित मुद्दे का यहां की राजनीति में मराठी-गैर मराठी मुद्दे से महत्त्व कतई कम नहीं है। या यूं कहें कि दोनों मुद्दों का आपस में गहरा जुड़ाव है तो गलत नहीं होगा।

महाराष्ट्र की राजनीति में दलित मुद्दे का मराठी-गैर मराठी मुद्दे से महत्त्व कतई कम नहीं है।

इसे समझने के लिए आइये समय से थोड़ा पीछे चलते हैं। बाबा साहेब अंबेडकर के प्रभाव के कारण इस प्रदेश का दलित किसी और प्रदेश के दलितों के मुकाबले अधिक शिक्षित है। इस शिक्षा ने इनके जीवन में काफी गुणात्मक प्रभाव डाला, इनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति में बेहतरी हुई है। सामर्थ्य और संख्याबल में वे यहां के किसी भी दूसरे प्रभावशाली समुदाय के लगभग बराबरी पर ठहरते हैं। कांग्रेस हमेशा से इसका फायदा अपने हित में करती आई है। दलितों के बीच मजबूत नेतृत्व भी उभरता रहा मगर एक सीमा के बाद कांग्रेस उसका बधिया कर दिया करती है, या तो उस नेतृत्व को कांग्रेस में मिला लिया जाता या फिर उसकी ऐसी घेराबंदी कर दी जाती जिससे वो खुद ही कांग्रेस की गोद में जा बैठता। नतीजतन मराठी दलित यहां की राजनीति में अपने वाजिब हक से हमेशा महरूम रहे।

Mayawati: PM in waiting?

कार्टून: कीर्तिश भट्ट (http://bamulahija.blogspot.com)

महाराष्ट्र की राजनीति में शीर्ष पर हमेशा से पाटिल, पवार, भोंसले, ठाकरे, चव्हाण जैसों का ही दबदबा बना रहा है। इस दबदबे को खत्म करने के लिये दलितों यह भलीभांति समझ चुके हैं कि उन्हें एकजुट होना है। जमीनी स्तर पर आये दिन होने वाले आपसी टकराव इसका सबूत हैं। पिछले दशक में ये टकराव ज्यादा तेजी से बढ़ें हैं। उधर उत्तर भारत में हो रहे बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के विस्तार ने इनमें आत्मविश्वास फूंकने का काम किया।

इस बनी बनाई जमीन को बसपा ने पहचान लिया और पिछले आम चुनावों में खासे आक्रमक रूप के साथ मैदान में उतरी। हालांकि पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली मगर उसके खाते में गये चार प्रतिशत वोट ने सबको सकते में डाल दिया। खासकर कांग्रेस के लिए ये बड़े खतरे की घंटी थी।

याद कीजिये, नवम्बर 2007 में मुम्बई में आयोजित मायावती की रैली में पांच लाख से ज्यादा की भीड़ इकट्ठा हुई थी जिसने कांग्रेस को यह अहसास करा दिया था कि वे अब सिर्फ उत्तर प्रदेश की नेता की रैली नहीं है। इस रैली ने कांग्रेस और एनसीपी में मानो भूचाल ला दिया था। तब आनन फानन इस तूफान को रोकने के लिए हाल में अपने चाचा से अलग हुये राज ठाकरे को कांग्रेस और एनसीपी ने इस्तेमाल करने का निर्णय लिया। इसके पीछे गणित यह था कि कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो रही भीम शक्ति को मराठी-गैर मराठी मुद्दे पर मायावती से जुड़ने से रोका जाय साथ ही राज ठाकरे को मजबूत कर शिवसेना को कमजोर किया जाये।

हो सकता है कि मायावती अपनी दलित ब्राह्मण भाईचारा नीति पर आगे बढ़ भाजपा के बैंक में ही सेंघ लगा बैठें

लेकिन कांग्रेस का ये दाँव उस पर ही उल्टा पड़ सकता है। राज ठाकरे के मुद्दे पर कार्रवाही करने में पार्टी ने जितनी शर्मनाक देरी दिखाई उससे उत्तर भारतीय समुदाय पूरी तरह से कांग्रेस एनसीपी गठबंधन से बिफर गया है। गौर करने वाली बात है कि कम-से-कम मुम्बई के कुछ इलाकों में उत्तर भारतीय समुदाय निर्णायक स्थिति में हैं। लेकिन उनके सामने विकल्प हीनता की स्थिति है। ऐसे में शिवसेना मायावाती से हाथ मिलाकर एकजुट दलितों को अपने पाले में करने की पुरजोर कोशिश करेगी।

विकल्प तो कई हैं। हो सकता है कि उत्तर भारतीयों की नाराजगी को पूरी तरह राज ठाकरे की ओर कर दिया जाय। इस काम में इसकी मदद कर सकती है, उत्तर प्रदेश में बसपा की विपक्षी, भाजपा, जिसे सिद्धांत रूप में कभी बसपा से परहेज नहीं रहा है। ऐसा होने पर भाजपा को बिहार में भी यहां की शिवसेना से अपनी दोस्ती का बचाव मौका मिल जायेगा। यह भी हो सकता है कि मायावती अपनी दलित ब्राह्मण भाईचारा नीति पर आगे बढ़ भाजपा के बैंक में ही सेंघ लगा बैठें, आगामी 24 जनवरी को तय बहु भाषिक ब्राह्मण महा अधिवेशन में आडवाणी, शरद पवार, कलमाडी के अलावा मायावती भी ब्राह्मणों को रिझाने आ सकती हैं

तरीका जो भी हो, उत्तर प्रदेश से बाहर निकलने को आतुर मायावती के लिए भी यह एक बढ़िया मौका साबित हो सकता है, लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के बाद काँग्रेस के कायम रहने से भाजपा सन्न तो रह ही गई थी, बहनजी का भी लेफ्ट और भाजपा के सहयोग के बल पर दलित प्रधानमंत्री का सपना सच होते होते रह गया था। वे यह मंसूबा पूरा ज़रूर करना चाहेंगी, भले इस बार उन्हें पीएम इन वेटिंग की सूची में आडवाणी के पीछे खड़े होना पड़े। मगर एक की अधिक और दूसरे के कम उम्र को देखते हुये इस इंतजार से मायावती को शायद ही कोई परेशानी हो।

आप तो जानते ही हैं, राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं। लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने तक देखते जाइये कौन किसके साथ खड़ा होता है।