र्ष 1960-65 के मध्य संचालित किया गया अन्तर्राष्ट्रीय हिन्द महासागर अभियान (IIOE – International Indian Ocean expedition) न केवल अपनी तरह का पहला समुद्रवैज्ञानिक अभियान था बल्कि इसके नेपथ्य में अनूठे विश्व सहयोग और बहु-जलयानों का योगदान भी था जिसकी बदौलत अभियान के दौरान की गईं खोजों और उनसे प्राप्त परिणामों ने भूवैज्ञानिक सिद्धांतों और संकल्पनाओं में क्रांति ला दी। इस अभियान का वैज्ञानिक उद्देश्य हिन्दमहासागर का अन्वेषण तथा विशिष्ट समुद्रवैज्ञानिक संकल्पनाओं का परीक्षण करना था।

क्या है समुद्रविज्ञान?

Oceanographyसमुद्र विज्ञान पृथ्वी विज्ञान की शाखा है, जिसमें समुद्र का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत समुद्री जीवों और पारिस्थितिकी तंत्र की गतिशीलता सहित समुद्र संबंधी अनेक विषयों जैसे समुद्र धाराओं, लहरों, और भूभौतिकीय तरल गतिकी; प्लेट टेक्टोनिक्स और समुद्र तल के भूविज्ञान; और समुद्र के भीतर विभिन्न पदार्थों के भौतिक और रासायनिक गुणों का विस्तृत अध्ययन शामिल है। विश्व महासागरों में समुद्र के भीतर की प्रक्रियाओं को समझने के लिए समुद्रविज्ञान का विज्ञान की अन्य शाखाओं के साथ गहरा संबंध होता है जिनमें खगोल विज्ञान, जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान, जलवायुविज्ञान, भूगोल, भूविज्ञान, जल विज्ञान, मौसम विज्ञान और भौतिकी आदि हैं। अतः समग्ररुप में समुद्रविज्ञान इन समस्त विषयों का मिश्रण है। पुरासमुद्रविज्ञान भूगर्भिक अतीत के महासागरों के इतिहास का अध्ययन कराता है। अतः समुद्र का अपना एक विज्ञान है, जो उसके गुणों की विशेषताओं के आधार पर उसे समुद्री भौतिकविज्ञान, समुद्री रसायनविज्ञान, समुद्री जीवविज्ञान और भू-भौतिक समुद्र विज्ञान की शाखाओं में विभक्त करता है।

उन दिनों हिन्दमहासागर का परिचय केवल एक अनजान अध्रुवीय महासागर के रुप में ही था, परंतु इस अभियान ने विश्व को इस महासागर की पारिभाषिक पहचान से अवगत कराया। समुद्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तो यह अभियान अब तक के सफलतम अभियानों में से एक साबित हुआ है। इसका जितना वैज्ञानिक लाभ हुआ, उतना ही विश्वसमाज पर भी इसका असर देखने को मिला। इस अभियान ने 14 विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों को एक साथ मिलकर काम करने की ओर प्रोत्साहित किया। इसमें अपनी भागीदारी दर्ज करने वाले थाइलैंड, भारत और पाकिस्तान को समुद्रविज्ञान के क्षेत्र में अपनी छिपी क्षमताओं को उभारने का भरपूर अवसर मिला।

अन्तर्राष्ट्रीय हिन्द महासागर अभियान में भारत की भागीदारी ने देश में समुद्रविज्ञान अध्ययन की नवीन सम्भावनाओं को जन्म दिया है। इसके माध्यम से भारत में विज्ञान की इस सद्यउद्भवित शाखा के भावी सृजन के कर्णधार रहे महान समुद्रवैज्ञानिक प्रोफेसर एन.के. पणिक्कर। उन दिनों पणिक्कर दिल्ली में खाद्य व कृषि मंत्रालय में मत्स्य विकास सलाहकार थे। वे इस अभियान की शुरुआत के पूर्व भी स्कॉर (SCOR या Scientific Committee on Oceanic Research) की बैठकों में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके थे। स्कॉर अंतर्राष्ट्रीय समुद्र वैज्ञानिक गतिविधियों को बढ़ावा देने और उनके समन्वयन करने वाला एक प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी व गैर-लाभकारी संगठन है। इसकी स्थापना 1957 में समुद्र विज्ञान अनुसंधान के लिए बनाई जाने वालीं योजनाओं के निर्धारण व संचालन में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने और समुद्र वैज्ञानिक गतिविधियों के दौरान आने वाली प्रायोगिक एवम् सैद्धांतिक समस्याओं को सुलझाने के उद्देश्य से की गई थी। इसका सचिवालय डेलावेयर विश्वविद्यालय, अमरीका में है।

समुद्री अनुसंधान के अपने अनुभव के कारण पणिक्कर एकमात्र ऐसे भारतीय समुद्रवैज्ञानिक थे जो सम्भवतः अच्छी तरह जानते थे कि देश के अन्य समुद्रवैज्ञानिकों, शोधार्थियों और विद्यार्थियों को अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दमहासागर अभियान में भाग लेने के लिए किस तरह एकत्रित किया जा सकता है। 1960 में पेरिस और हेलसिंकी में स्कॉर-यूनेस्को की बैठकों में भाग लेने के बाद उन्होंने इस दिशा में गम्भीरता से कार्य प्रारंभ किया। उसी वर्ष उनकी सलाह पर डॉ. डी.एन.वाडिया की अध्यक्षता में एक भारतीय राष्ट्रीय समुद्री अनुसंधान समिति (Indian National Committee on Oceanic Research) गठित की गई जिसे अन्तर्राष्ट्रीय हिन्द महासागर अभियान के दौरान भारतीय वैज्ञानिक कार्यक्रमों की योजनाओं के निर्धारण व समन्वयन का उत्तरदायित्व सौंपा गया था। समिति के विचार-विमर्श के परिणामों को सीधे अन्तर्राष्ट्रीय हिन्द महासागर अभियान निदेशालय को भेजा जाता था, और फिर अभियान में भारत की पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त निधि और स्टाफ का आवंटन करने की स्वीकृति प्रदान की जाती थी।

Dr N.K.Panikkar

राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के पहले निदेशक समुद्रवैज्ञानिक डॉ एन.के.पणिक्कर (1913-1977) को भारत में समुद्रविज्ञान का कर्णधार माना जाता है

1961 में यूनेस्को से वित्तीय सहायता प्राप्त एक अन्तर्राष्ट्रीय मौसमविज्ञान बैठक मुम्बई में आयोजित की गई जिसमें हिन्दमहासागर से संलग्न दस देशों के अलावा ब्रिटेन और अमरिका के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इस बैठक में संयुक्त राष्ट्र और विश्व मौसमविज्ञान संगठन (World Meteorological Organization) के प्रतिनिधि भी शामिल हुए थे। इसके बाद कोलाबा, मुम्बई में अंतर्राष्ट्रीय मौसम विज्ञान केन्द्र और कोचीन में हिंद महासागर जैव विज्ञान केन्द्र की स्थापना की गई थी, जो बाद में समुद्री वैज्ञानिकों के लिए विश्वस्तरीय केंद्र के रुप में उभरकर सामने आए।

अन्तर्राष्ट्रीय हिन्द महासागर अभियान के शुरु होने के कुछ दिनों पहले ही प्रोफेसर पणिक्कर ने भारत सरकार की ओर से अमेरिका के स्क्रिप्स समुद्रविज्ञान संस्थान (Scripps Institution of Oceanography) के प्रख्यात समुद्रवैज्ञानिक प्राध्यापक यूजीन लाफॉण्ड से भारतीय समुद्रविज्ञान केंद्रों का दौरा कर वहाँ अपने व्याख्यान देने का आग्रह किया। लाफॉण्ड, जो अपने मित्रों के बीच जीन नाम से लोकप्रिय थे, को भारत से बड़ा ही लगाव था। उनके भारत आगमन का उद्देश्य था कि वे देश के विभिन्न संस्थानों में काम कर रहे उत्साही वैज्ञानिकों को इस अभियान के महत्व से परिचित करवा सकें और विशेष रुप से अमेरिका के जीवविज्ञान कार्यक्रमों व जलयान एण्टोन ब्रून की समुद्री यात्राओं से संबंधित जानकारियाँ प्रदान करें क्योंकि इन यात्राओं में अनेक भारतीय वैज्ञानिकों की भागीदारी भी सुनिश्चित हो चुकी थी। लाफॉण्ड ने बॉम्बे विज्ञान अकादमी, तारापोरेवाला समुद्र जीववैज्ञानिक अनुसंधान स्टेशन मुम्बई, नौसेना भौतिकीय प्रयोगशाला कोचीन, राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान कोचीन, केंद्रीय मत्स्य अनुसंधान संस्थान के अलावा आँध्रप्रदेश, गुजरात, केरल, दिल्ली इत्यादि स्थित लगभग दो दर्जन विश्वविद्यालयों में अपने व्याख्यानों के द्वारा भारतीय वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित किया। लाफॉण्ड ने 1952-56 के दौरान आंध्र विश्वविद्यालय में समुद्र विज्ञान के अतिथि प्राध्यापक के रूप में अपनी सेवाएँ प्रदान कीं, यहीं से 1956 में उन्हें डॉक्टर ऑफ साइंस की उपाधि से सम्मानित किया गया।

Prof Eugene Cecil Lafond

प्रोफेसर यूजीन लाफॉण्ड (1909-2002) को “भारत में आधुनिक समुद्र विज्ञान के जनक” के रूप में जाना जाता है।

प्रोफेसर लाफॉण्ड को “भारत में आधुनिक समुद्र विज्ञान के जनक” के रूप में जाना जाता है। उन्होंने भारतीय समुद्रवैज्ञानिकों का एक ऐसा प्रशिक्षित दल तैयार किया जिसने बहुत ही कम समय में अपनी रचनात्मक समुद्रवैज्ञानिकता का परिचय देते हुए तटीय कटाव, समुद्र तट के भू-आकृति विज्ञान, विभिन्न प्रकार की समुद्री धाराओं, ध्वनि प्रसार, आंध्र, कृष्णा और महादेवन समुद्रीघाटियों की खोज, समुद्री प्रकाशीय विशेषताओं, अवसादन दर, अवसादों के भूरासायनिक गुणों, हाइड्रोग्राफी, जल संसाधनों, समुद्री ज्वार-भाटों, पोषक तत्व रसायन विज्ञान, प्लवक उत्पादन, और सूचक प्रजातियों जैसे विषयों पर अनुसंधान की एक अद्भुत विविधता से देश को चकित कर दिया। भारत सरकार ने उनके अमूल्य योगदान की स्मृति में उनके नाम पर एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त “यूजीन लाफॉण्ड पदक” की स्थापना की है।

राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान (National Institute of Oceanography) भारत सरकार के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) की एक प्रयोगशाला है। इसका मुख्यालय गोवा में स्थित है तथा मुम्बई, कोच्चि एवं विशाखापट्टनम में इसके क्षेत्रीय कार्यालय हैं। इसकी स्थापना 1966 में हुई थी। प्रोफेसर लाफॉण्ड का इस संस्थान के प्रति विशेष स्नेह रहा है। इस बात की पुष्टि इससे होती है कि 80 के दशक के पूर्वार्ध में उन्होंने अपने व्यक्तिगत संग्रह से जर्नल ऑफ जिओफिजिकल रिसर्च (Journal of Geophysical Research) के कई पुराने अंकों से लेकर अनेक अन्य पत्रिकाएँ, किताबें, रिपोर्टें और हजारों रिप्रिंट एनआईओ को दान कर दिये। इसके पहले निदेशक प्रोफेसर पानिक्कर ही थे। 1973 में पानिक्कर को राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया। यह सम्मान पाने वाले वे पहले भारतीय समुद्रवैज्ञानिक थे।

प्रोफेसर पणिक्कर व प्रोफेसर लाफॉण्ड और उनके जैसे अनेक महान समुद्रवैज्ञानिकों के अथक परिश्रम से हमारा देश समुद्रविज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान करने वाले प्रमुख राष्ट्रों में सम्मिलित है। प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय हिन्द महासागर अभियान के पश्चात् बीते पाँच दशकों में भारत ने समुद्रविज्ञान में अनुसंधानों के अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं। अब 2015-20 के बीच एक नये अभियान IIOE-2 में अत्याधुनिक तकनीकों द्वारा समुद्र में बायोजियोकेमिकल प्रक्रिया, पर्यावरण पर समुद्र के असर, मछली के अत्यधिक शिकार के प्रभाव, समुद्री जल के अम्लीकरण एवं समुद्री जीवन पर इसके प्रभाव आदि का अध्ययन किया जायेगा।

जानकारी और चित्र स्कॉर, स्क्रिप्स व अन्य जालस्थलों से साभार